अंधविश्वास पर रोक के लिए जरूरत है केंद्रीय कानून की- प्रत्युष प्रशांत

गरीब, वंचितों और महिलाओं को आस्था के नाम पर अमानवीय शोषण से रोकने लिए जरूरी है कि महाराष्ट्र और कर्नाटक के बाद पूरे देश में अंधश्रद्धा के विरोध में एक केंद्रीय कानून बने, जो जातिगत और जेडर आधारित भेदभाव को खत्म करने में नई शुरुआत हो।

21वीं सदी के दूसरी दहाई में आधुनिकता के तरफ आगे बढ़ते हुए समाज का एक बड़ा हिस्सा आज भी बिल्ली के रास्ता काटने, दूध के उबल कर गिरने या छींक आने से कुछ सेकंड के लिए स्थिर हो जाता है। शुभ-अशुभ की धारणा हर समाज में बनी हुई है जिसके वजह से घर के बाहर हरी मिर्ची-नींबू या नजरबट्ट या लोहे का नाल लगाना आम चलन है। भीड़ का हर तीसरा व्यक्ति चाहे वो पढ़ा-लिखा हो या अनपढ़ इन आस्थाओं के गिरफ्त में है। सामाजिक जीवन में इन मान्यताओं के प्रभाव को शिक्षित या अशिक्षित समाज में विभाजित नहीं किया जा सकता है क्योंकि सामाजिक परिवेश में यह समान रूप से हर मानव समुदाय पर हावी होती है, इससे मुक्त होने की तमाम कोशिश के बाद भी हम इससे मुक्त नहीं हो पाते है।
सामाजिक जीवन में शुभ-अशुभ व्यवहारों/आचारों से जुड़े हुए तर्को की कई व्याख्याएं है जो आधारहीन अधिक है वैज्ञानिक कम। अपनी आधारहीन व्याख्याओं के बाद भी यह समाज में समान्य रूप से स्वीकार्य है। आस्थाओं के दुहाई के आड़ में समाज की प्रतिगामी ताकतों ने मानवीय गरिमाओं को कई बार तार-तार किया है और करती रहती है, विशेषकर महिलाओं को। शुभ-अशुभ की इन मान्यताओं का खमियाजा भारतीय समाज में महिलाओं सबसे अधिक भुगतना पड़ा है। संयुक्त राष्ट्र संघ ने कुछ सालों पहले एक रिपोर्ट पेश की थी, जिसमें भारत में 1987 से 2003 तक 2 हजार 556 महिलाओं को डायन या चुड़ैल कह कर मार देने की बात कही गई थी। इस तरह हत्या करने के मामले झारखंड में सबसे आगे है। दूसरे पर ओड़िशा और तीसरे नंबर पर तमिलनाडु है। एक दूसरी रिपोर्ट के मुताबिक भारत में 2011 में 240, 2012 में 119, 2013 में 160 हत्याएं अंधविश्वास के नाम पर की गर्इं। अकेले 2001 से 2016 तक पांच सौ महिलाओं की हत्या अंधविश्वास से प्रेरित होकर की गई।
मौजूदा समय में इन मान्यताओं के संदर्भ में यह समझना अधिक जरूरी है कि सामाजिक जीवन में शुभ-अशुभ से जुड़ी धारणाओं में धर्म से अधिक भेदभावपूर्ण व्यवहार का प्रभाव सबसे अधिक है। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि इन सामाजिक-सांस्कृतिक कुरितियों के साथ जाति और धर्म मूल की राजनीति का इतिहास बहुत पुराना रहा है। औपनिवेशिक देशकाल में भी तमाम प्रगतिगामी संगठन इन अंधविश्वास के विरुद्ध बन रहे कानूनों को विशेष धर्म विरोधी कह दिया जाता है, जबकि कानून का फोकस सभी धर्मो की अनैतिक प्रथाओं/आचारों पर होता है। अंधविश्वासी प्रथाओं/आचारों का विरोध धर्मविरोधी चरित्र के कारण नहीं भेदभाव भरे व्यवहार के कारण होता है।
इसलिए यह समझने की जरूरत है कि इन प्रथाओं/आचारों के विरुद्ध संघर्ष की लड़ाई को कानून के साथ-साथ लोगों की मानसिकता में बदलाव से ही जीता जा सकता है। लोगों के मानसिकता में बदलाव की नियती ही इन प्रथाओं/आचारों के विरुद्ध खड़ी होकर कानून का इस्तेमाल ढ़ाल के रूप में कर सकेगी। जाहिर है कि कानून के साथ-साथ लोगों की मानसिकता में बदलाव के लिए मूलभूत कदम उठाने भी जरूरी हैं।
भारत के संविधान की धारा 51 ए मानवीयता एवं वैज्ञानिक चितंन को बढ़ावा देने में सरकार के प्रतिबद्ध रहने की बात करती है, जो अनुच्छेद राज्य सोच को बढ़ावा देने की जिम्मेदारी डालता है। मसलन, बच्चों को काटें पर फेंकना या महिला को नग्न करने घुमाना धारा 307 और 354 बी के तहत अपराध है, जो अधिक प्रभावी रूप से सक्रिय नहीं है। प्रत्येक राज्य अपने कानून और व्यवस्था को बनाने के आईपीसी में संसोधन करने के लिए स्वतंत्र है ताकि वह विशिष्ट आवश्यकताओं को पूरा कर सके। इन्हीं प्रयास में कर्नाटक सरकार ने पिछले दिनों ऐतिहासिक अंधविश्वास विरोध बिल प्रीवेंशन एंड इरेडिकेशन आफ इनहयूमन इविल प्रैकिट्सेस एंड ब्लैक मैजिक एक्ट 2017 (अमानवीय प्रथाओं और काला जादू पर रोक एवं उनकी समाप्ति के लिए विधेयक) को पास किया है।
प्रस्तावित कानून में किसी को सिद्धभुक्टी, माता, ओखली, मानव बली जैसी परंपरा जिसमें जान जाने का डर हो को प्रतिबंधित किया है, अंधविश्वासी बातों को फैलना, करतब से इंसानी चमत्कार दिखाना, आग पर चलने के लिए मजबूर करना, किसी के मुंह से लोहे के सलाखे निकालना, काला जादू के नाम पर पत्थर फेंकना, सांप या बिच्छु काटने से घायल व्यक्ति को चिकित्सकीय सहायता न देकर उसके लिए जादुई इलाज का इंतजाम करना, धार्मिक रस्म के नाम पर किसी को निर्वस्त्र करना, भूत के विचार को बढ़ावा देना, चमत्कार करने का दावा करना, अपने आप को घायल करने के विचार को बढ़ावा देना आदि प्रयासों को इस बिल के तहत अपराध के श्रेणी में रखा गया है। अंधविश्वास के लिए महिलाओं और बच्चों के उपयोग को कड़े अपराध की श्रेणी में रखा गया है।
इसके पूर्व महाराष्ट्र सरकार ने भी इस तरह के प्रयास किये है, पर जरूरी है कि इस दिशा में पूरे देश में एक केंद्रीय कानून बने। महाराष्ट्र और कर्नाटक सरकार का अंधविश्वास विरोधी बिल जाति और जेंडर आधारित अपमानजन व्यवहारों/आचारों पर सवाल उठाता है हालांकि इसतरह के बिल के मानवीय प्रावधान समस्या के निवारण को सुलझाने में इसके मूल कारण से भटक जाते है। कानून में सजा के प्रावधान समस्या से फौरी राहत के तरह ही है समस्या के मूल पर कोई चोट नहीं हो पाती है। फिर भी कई तरह के परंपरागत व्यवहारों/आचारों पर अंकुश लगाने के लिए सख्त कानून जरूरी है ताकि आस्था की नाम लोगों को बेवकूफ बनने से बचाया जा सके और समाज को वैज्ञानिक दिशा की तरफ प्रेरित किया जा सके।
महाराष्ट्र और कर्नाटक सरकार का मौजूदा बिल इस दिशा में मील का पत्थर माना जा सकता है हालांकि इस बिल में कई तरह की उलझने है जिस दूर किया जाना जरूरी है। अपने अंदर की तमाम विसंगतियों के बावजूद इस तथ्य रेखांकित करना जरूरी है कि मौजूदा बिल भी सही दिशा में उठाया गया महत्वपूर्ण कदम है। मौजूदा बिल की प्रासंगिकता को ध्यान में रखते हुए केंद्रीय स्तर ऐस माहौल बनाए जाने की जरूरत है जिससे जाति और जेंडर आधारित भेदभाव को कम या खत्म किया जा सके।

                                                                                                                        

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